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Bhimrao Ambedkar Ek Jeevani

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Description

Bhimrao Ambedkar Ek Jeevani

Bhimrao Ambedkar Ek Jeevani – भीमराव अंबेडकर का जीवन भारतीय समाज के जाति-आधारित विभाजन, सामाजिक सुधार और संविधान निर्माण से जुड़ा है। उनका जन्म एक अछूत परिवार में हुआ था, और उन्होंने अपने जीवन को न केवल अपने अधिकारों के लिए बल्कि पूरे दलित समाज के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। क्रिस्टोफ जैफ़रलॉट की यह पुस्तक अंबेडकर के जीवन की विभिन्नBhimrao Ambedkar Ek Jeevani महत्वपूर्ण घटनाओं का गहन विश्लेषण करती है और उनके संघर्षों व आदर्शों को समाज के सामने लाने का प्रयास करती है।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महार जाति के परिवार में हुआ था, जो भारतीय समाज की जाति संरचना में सबसे निचले स्तर पर मानी जाती थी। बचपन से ही अंबेडकर को जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा। उन्हें स्कूल में अछूत होने के कारण अन्य बच्चों से अलग बैठने और पानी पीने जैसी सामान्य चीजों में भी अलग व्यवहार किया जाता था। यह भेदभाव उनके मानस पर गहरा प्रभाव डालता है और उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बनता है।

भीमराव अंबेडकर का परिवार शिक्षा को बहुत महत्व देता था, इसलिए उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी। उनके पिता ने उनके भीतर शिक्षा के प्रति जागरूकता पैदा की और उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका और इंग्लैंड में अध्ययन किया, जहां उन्होंने राजनीति, कानून, और अर्थशास्त्र में महारत हासिल की। कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अध्ययन के दौरान, अंबेडकर ने जातिगत भेदभाव और समाज में दलितों की स्थिति को गहराई से समझा।

अंबेडकर और जातिवाद के खिलाफ संघर्ष

भारत लौटने के बाद, अंबेडकर ने दलित समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्ष शुरू किया। उनका मानना था कि भारतीय समाज का जातिवादी ढांचा न केवल असमानता को बनाए रखता है, बल्कि इसके कारण समाज में व्यापक अन्याय भी हो रहा है। जैफ़रलॉट इस संघर्ष के विभिन्न चरणों का विस्तृत वर्णन करते हैं।

भीमराव अंबेडकर ने दलितों के अधिकारों के लिए कई आंदोलनों की शुरुआत की, जिनमें से प्रमुख आंदोलन महाड़ सत्याग्रह था। 1927 Bhimrao Ambedkar Ek Jeevaniमें, महाड़ में अंबेडकर ने सार्वजनिक जलाशयों में दलितों के पानी पीने के अधिकार के लिए आंदोलन किया। यह आंदोलन जातिगत भेदभाव के खिलाफ एक प्रतीकात्मक संघर्ष था और इसके बाद अंबेडकर ने मनुस्मृति के खिलाफ अभियान भी चलाया, जो भारतीय जातिवादी व्यवस्था का आधार माना जाता है।

जैफ़रलॉट इस बात पर जोर देते हैं कि अंबेडकर के लिए सामाजिक सुधार का मतलब केवल दलितों को उनके अधिकार दिलाना नहीं था, बल्कि पूरे समाज को जाति व्यवस्था से मुक्त करना था। उनका मानना था कि जब तक जातिवाद रहेगा, तब तक सामाजिक और आर्थिक विकास अधूरा रहेगा।

राजनीतिक यात्रा और संविधान सभा में योगदान

अंबेडकर ने 1930 के दशक में भारतीय राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू किया। उनका उद्देश्य दलितों की स्थिति को बेहतर करना था। इसके लिए उन्होंने कई राजनीतिक दलों का गठन किया, जिनमें इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी और शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन शामिल थे। 1932 के पूना पैक्ट में अंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच दलितों के लिए आरक्षित सीटों के मुद्दे पर समझौता हुआ। जैफ़रलॉट इस घटना को अंबेडकर के राजनीतिक करियर का एक महत्वपूर्ण मोड़ मानते हैं, जहां उन्होंने न केवल गांधी से राजनीतिक रूप से टकराव किया, बल्कि दलितों के अधिकारों के लिए एक अलग दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया।

अंबेडकर को भारतीय संविधान सभा का सदस्य चुना गया और संविधान के निर्माण में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जैफ़रलॉट विस्तार से बताते हैं कि अंबेडकर ने संविधान में दलितों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए विशेष प्रावधान जोड़े। उन्होंने समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों को संविधान का आधार बनाया, जो भारत को एक समतामूलक समाज बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।

अंबेडकर के लिए यह केवल एक राजनीतिक दस्तावेज नहीं था, बल्कि यह सामाजिक न्याय की स्थापना का एक साधन था। उन्होंने सुनिश्चित किया कि संविधान में दलितों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के लिए सुरक्षा उपाय और विशेष अधिकार दिए जाएं। उनका दृष्टिकोण न केवल भारतीय राजनीति को प्रभावित करता है, बल्कि समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों के लिए यह एक नया आशा का स्रोत बनता है।

धर्म परिवर्तन और बौद्ध धर्म की ओर झुकाव

अंबेडकर ने भारतीय समाज में दलितों की स्थिति को सुधारने के लिए केवल राजनीति और कानून पर निर्भर नहीं किया, बल्कि उन्होंने यह महसूस किया कि धार्मिक संरचनाएं भी इस असमानता को बनाए रखती हैं। 1935 में, उन्होंने घोषणा की कि “मैं हिंदू के रूप में जन्मा हूं, लेकिन मैं हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं।” अंबेडकर ने 1956 में अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया, जो उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण और निर्णायक मोड़ था।

जैफ़रलॉट इस धर्म परिवर्तन के पीछे के कारणों की विस्तृत व्याख्या करते हैं। अंबेडकर का मानना था कि बौद्ध धर्म जाति व्यवस्था और छुआछूत की अवधारणा को अस्वीकार करता है और यह मानवता और समानता के आदर्शों पर आधारित है। उन्होंने दलितों के लिए एकBhimrao Ambedkar Ek Jeevani नया मार्ग प्रस्तुत किया, जो धार्मिक और सामाजिक रूप से उन्हें सम्मान और गरिमा दिला सके।

बौद्ध धर्म में उनके धर्मांतरण ने भारतीय दलित आंदोलन में एक नई दिशा दी। यह धर्म परिवर्तन केवल धार्मिक पहचान का परिवर्तन नहीं था, बल्कि यह अंबेडकर के दृष्टिकोण का प्रतीक था कि जातिवादी समाज में सुधार तभी संभव है जब उसकी जड़ें पूरी तरह से उखाड़ी जाएं।

अंबेडकर और गांधी का संघर्ष

अंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच का टकराव भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक सुधार के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है। जैफ़रलॉट ने इस संघर्ष पर गहराई से प्रकाश डाला। जहां गांधी जातिवादी व्यवस्था को सुधारने के पक्षधर थे और अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए प्रयासरत थे, वहीं भीमराव अंबेडकर का मानना था कि जाति व्यवस्था का सुधार पर्याप्त नहीं है; इसे पूरी तरह समाप्त करना आवश्यक है।

अंबेडकर ने गांधी के दृष्टिकोण की आलोचना की और उन्हें दलितों के प्रति असंवेदनशील माना। उनका तर्क था कि गांधी जातिवाद के खिलाफ तो थे, लेकिन वे जाति व्यवस्था की जड़ों को नहीं काटना चाहते थे। जैफ़रलॉट इस संघर्ष को अंबेडकर की राजनीतिक और सामाजिक विचारधारा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं, जहां उन्होंने न केवल दलितों के अधिकारों की बात की, बल्कि पूरे समाज के लिए एक समतामूलक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।

सामाजिक सुधार और महिला अधिकार

अंबेडकर केवल दलितों के अधिकारों के लिए ही नहीं, बल्कि समाज में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए भी संघर्षरत थे। जैफ़रलॉट बताते हैं कि भीमराव अंबेडकर ने समाज में महिलाओं की दुर्दशा को सुधारने के लिए कई कदम उठाए। उनके लिए सामाजिक न्याय का मतलब केवल जातिगत भेदभाव का उन्मूलन नहीं था, बल्कि लैंगिक समानता भी थी।

संविधान सभा में अंबेडकर ने महिलाओं के अधिकारों के लिए जोर दिया और उन्होंने सुनिश्चित किया कि महिलाओं को शिक्षा, संपत्ति और रोजगार में समान अधिकार मिलें। उन्होंने हिंदू कोड बिल का मसौदा तैयार किया, जो महिलाओं को संपत्ति में हिस्सेदारी और विवाह-संबंधी अधिकार दिलाने के लिए था, हालांकि इसे तत्कालीन राजनीतिक विरोध के कारण लागू नहीं किया जा सका।

अर्थशास्त्र और सामाजिक नीति

भीमराव अंबेडकर एक बेहतरीन अर्थशास्त्री भी थे, और जैफ़रलॉट ने इस पहलू पर भी विस्तृत चर्चा की है। अंबेडकर का आर्थिक दृष्टिकोण जातिवादी व्यवस्था के उन्मूलन के साथ-साथ आर्थिक असमानता को खत्म करने पर भी केंद्रित था। उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि, औद्योगिकीकरण और श्रमिकों की स्थिति पर गहराई से अध्ययन किया।

उन्होंने भारत के लिए एक आर्थिक नीति की वकालत की जो समाज के सभी वर्गों के लिए लाभकारी हो। उनके विचारों में सामाजिक और आर्थिक समानता का मेल था, और उन्होंने जोर दिया कि जब तक समाज में आर्थिक असमानता रहेगी, तब तक सामाजिक न्याय की स्थापना संभव नहीं है।

अंबेडकर का उत्तराधिकार और उनकी विरासत

जैफ़रलॉट ने भीमराव अंबेडकर की मृत्यु के बाद उनके विचारों और आंदोलनों के प्रभाव की भी चर्चा की है। अंबेडकर की मृत्यु 1956 में Bhimrao Ambedkar Ek Jeevaniहुई, लेकिन उनके विचार और आदर्श आज भी भारतीय समाज और राजनीति में प्रासंगिक हैं। उनकी शिक्षाएं आज के दलित आंदोलन और सामाजिक न्याय के मुद्दों के लिए एक प्रेरणा स्रोत हैं।

भीमराव अंबेडकर का जीवन संघर्ष, शिक्षा, और सामाजिक न्याय के प्रति समर्पण का एक उदाहरण है। जैफ़रलॉट ने इस किताब में अंबेडकर की विभिन्न उपलब्धियों और योगदानों को एक समग्र दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है, जो उन्हें एक महान नेता, विचारक, और समाज सुधारक के रूप में चित्रित करता है।

प्रारंभिक संघर्ष और सामाजिक जीवन

डॉ. भीमराव अंबेडकर के जीवन के शुरुआती वर्षों में उनके संघर्षों ने उनके सामाजिक दृष्टिकोण को गहराई से प्रभावित किया। अंबेडकर का जन्म महार जाति में हुआ था, जिसे उस समय अछूत माना जाता था। स्कूल के दिनों से ही उन्हें जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा, और यह अनुभव उनके मन में समाज सुधार के लिए एक गहरी भावना को जन्म देने वाला साबित हुआ। अंबेडकर का मानना था कि शिक्षा ही वह हथियार है जो समाज में व्याप्त अन्याय और असमानता को समाप्त कर सकता है।

यही कारण था कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद, उन्होंने दलित समाज को शिक्षा के माध्यम से जागरूक करने और उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। अंबेडकर का कहना था, “शिक्षित बनो, संगठित रहो, और संघर्ष करो।” ये शब्द उनकी जीवन दृष्टि को प्रतिबिंबित करते हैं, और इसी आधार पर उन्होंने अपने सामाजिक सुधार के कार्यों की शुरुआत की।

छुआछूत के खिलाफ अभियान

1930 के दशक में, भीमराव अंबेडकर ने छुआछूत के खिलाफ कई आंदोलन चलाए। इन आंदोलनों में से एक सबसे महत्वपूर्ण था महाड़ सत्याग्रह। 1927 में, उन्होंने महाराष्ट्र के महाड़ नगर में एक सार्वजनिक तालाब से पानी पीने के अधिकार के लिए सत्याग्रह का नेतृत्व किया। इस आंदोलन का उद्देश्य था दलितों को समाज में उनके मौलिक अधिकार दिलाना, खासकर सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग करने का अधिकार। महाड़ सत्याग्रह एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने अंबेडकर को दलित समुदाय के नेता के रूप में स्थापित किया।

इसके अलावा, उन्होंने जातिवादी व्यवस्था के वैधानिक और धार्मिक आधार को चुनौती देने के लिए मनुस्मृति का सार्वजनिक दहन भी किया। अंबेडकर का मानना था कि मनुस्मृति जैसे धर्मग्रंथ जातिवाद को वैधता प्रदान करते हैं और इस प्रकार उन्होंने इसके खिलाफ व्यापक जनजागरण अभियान चलाया।

राजनीतिक यात्रा और दलित अधिकारों के लिए संघर्ष

भीमराव अंबेडकर का राजनीतिक करियर 1930 के दशक में शुरू हुआ जब उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का गठन किया। इस पार्टी का मुख्य उद्देश्य मजदूरों और दलितों के अधिकारों की रक्षा करना था। अंबेडकर ने 1937 के बॉम्बे प्रेसीडेंसी चुनाव में अपनी पार्टी के लिए उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की। उनका राजनीतिक दृष्टिकोण था कि सामाजिक सुधार के लिए राजनीतिक शक्ति का होना आवश्यक है।

भीमराव अंबेडकर की राजनीतिक यात्रा में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया पूना पैक्ट के समय। 1932 में, महात्मा गांधी और अंबेडकर के बीच दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल के मुद्दे पर टकराव हुआ। गांधीजी पृथक निर्वाचक मंडल का विरोध कर रहे थे, जबकि अंबेडकर मानते थे कि दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए यह जरूरी था। अंततः, दोनों नेताओं के बीच पूना समझौता हुआ, जिसमें दलितों के लिए आरक्षित सीटों की व्यवस्था की गई, लेकिन पृथक निर्वाचक मंडल को समाप्त कर दिया गया।

यह समझौता भीमराव अंबेडकर के राजनीतिक संघर्ष की दिशा बदलने वाला साबित हुआ। यद्यपि उन्हें दलित समुदाय के लिए पृथक राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया, लेकिन उन्होंने इस समझौते को अपने संघर्ष का अंत नहीं माना, बल्कि इसे एक नए संघर्ष की शुरुआत के रूप में देखा।

संविधान सभा और भारतीय संविधान निर्माण में योगदान

अंबेडकर का सबसे महत्वपूर्ण योगदान भारतीय संविधान सभा में रहा, जहां उन्हें संविधान मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया। जैफ़रलॉट ने इस बात पर विस्तार से चर्चा की है कि अंबेडकर ने भारतीय संविधान में दलितों और अन्य कमजोर वर्गों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कई प्रावधान जोड़े। उनका उद्देश्य एक ऐसा संविधान तैयार करना था, जो जातिगत भेदभाव को समाप्त कर सके और समाज के हर वर्ग को समान अवसर प्रदान कर सके।

अंबेडकर ने भारतीय संविधान के निर्माण में तीन मूलभूत सिद्धांतों—समानता, स्वतंत्रता, और बंधुत्व—को आधार बनाया। उनका मानना था कि जब तक भारतीय समाज में इन सिद्धांतों की स्थापना नहीं होगी, तब तक वास्तविक लोकतंत्र संभव नहीं होगा। उन्होंने यह सुनिश्चितBhimrao Ambedkar Ek Jeevani किया कि संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण, मौलिक अधिकार, और न्यायिक सुरक्षा के प्रावधान शामिल हों, जिससे समाज के हाशिए पर खड़े वर्गों को उनके अधिकार मिल सकें।

हिंदू कोड बिल और महिला अधिकार

अंबेडकर का समाज सुधार का दृष्टिकोण केवल दलित अधिकारों तक सीमित नहीं था। उन्होंने समाज में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए भी महत्वपूर्ण कार्य किए। अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल का मसौदा तैयार किया, जो महिलाओं को संपत्ति में हिस्सा, विवाह में समानता, और तलाक के अधिकार प्रदान करने का प्रावधान करता था। यह बिल उस समय के भारतीय समाज के लिए बेहद प्रगतिशील था, और इसके कारण अंबेडकर को भारी राजनीतिक विरोध का सामना करना पड़ा।

हालांकि, इस बिल को तत्कालीन संसद ने पारित नहीं किया, लेकिन यह अंबेडकर की महिला अधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है। उनका मानना था कि सामाजिक न्याय का अर्थ केवल जातिगत समानता नहीं है, बल्कि लैंगिक समानता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। अंबेडकर के विचारों ने भारत में महिला अधिकारों के आंदोलन को भी प्रेरित किया और आज भी उनके योगदान को इस संदर्भ में याद किया जाता है।

बौद्ध धर्म की ओर परिवर्तन

अंबेडकर का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक निर्णय था उनका धर्म परिवर्तन। 1935 में उन्होंने घोषणा की, “मैं हिंदू के रूप में जन्मा हूं, लेकिन मैं हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं।” अंबेडकर का यह निर्णय उनके जीवन भर के संघर्ष और भारतीय समाज में जातिगत असमानता के खिलाफ उनकी नाराजगी को व्यक्त करता है। वे मानते थे कि हिंदू धर्म की जातिवादी संरचना के भीतर दलितों के लिए सम्मान और समानता की कोई जगह नहीं है।

1956 में, अंबेडकर ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया, जो उनके सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण का परिणाम था। बौद्ध धर्म के प्रति उनका झुकाव इसलिए था क्योंकि यह धर्म समानता, करुणा, और जातिवाद के विरोध पर आधारित है। अंबेडकर के लिए यह धर्म परिवर्तन केवल धार्मिक परिवर्तन नहीं था, बल्कि यह एक सामाजिक क्रांति थी, जिसके माध्यम से वे दलित समाज को आत्म-सम्मान और आत्मनिर्भरता की भावना से प्रेरित करना चाहते थे।

अंबेडकर और नेहरू-युग की राजनीति

भीमराव अंबेडकर का भारतीय राजनीति में योगदान सिर्फ संविधान निर्माण तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने नेहरू सरकार में कानून मंत्री के रूप में भी कार्य किया, लेकिन उनके और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बीच विभिन्न मुद्दों पर मतभेद थे। अंबेडकर का दृष्टिकोण था कि दलितों और पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए अधिक तीव्र और क्रांतिकारी उपायों की आवश्यकता है। जबकि नेहरू एक समग्र राष्ट्रीय दृष्टिकोण को प्राथमिकता देते थे, अंबेडकर का मानना था कि जब तक समाज के सबसे निचले तबके का उत्थान नहीं होगा, तब तक वास्तविक स्वतंत्रता नहीं मिल सकती।

भीमराव अंबेडकर ने नेहरू की आर्थिक नीतियों की भी आलोचना की, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि सुधार और औद्योगिकीकरण की नीतियों को लेकर। उन्होंने तर्क दिया कि दलितों और भूमिहीन मजदूरों के लिए भूमि सुधार आवश्यक है, जबकि नेहरू के लिए औद्योगिकीकरण प्राथमिकता थी। इन मतभेदों के कारण, अंबेडकर ने अंततः मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया, लेकिन उन्होंने अपनी राजनीतिक और सामाजिक सक्रियता जारी रखी।

सामाजिक विचारधारा और आर्थिक दृष्टिकोण

अंबेडकर न केवल एक समाज सुधारक थे, बल्कि एक अर्थशास्त्री और विचारक भी थे। उनका दृष्टिकोण था कि जब तक समाज में आर्थिक असमानता बनी रहेगी, तब तक सामाजिक समानता प्राप्त नहीं की जा सकती। उन्होंने भारत के औद्योगिकीकरण, कृषि सुधार, और श्रमिकों के अधिकारों पर महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए।

अंबेडकर का मानना था कि भारत को एक आधुनिक, औद्योगिक राष्ट्र बनना चाहिए, जहां श्रमिकों को उनके अधिकार मिलें और आर्थिक संसाधनों का समान वितरण हो। उनके विचारों में समाजवादी तत्व थे, लेकिन वे इसे व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ लागू करना चाहते थे। उनका तर्क था कि जब तक समाज के गरीब और पिछड़े वर्गों को आर्थिक रूप से समर्थ नहीं बनाया जाएगा, तब तक वास्तविक सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं है।

अंबेडकर का साहित्यिक योगदान

अंबेडकर एक उत्कृष्ट लेखक और विचारक भी थे। उन्होंने कई पुस्तकें और लेख लिखे, जिनमें “जाति का उन्मूलन” (Annihilation of Caste), “भारत में जाति का उद्भव”, और “बुद्ध और उनका धम्म” प्रमुख हैं।

1 review for Bhimrao Ambedkar Ek Jeevani

  1. Rakesh

    Best Book On Bhimrao Ambedkar Biography.

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